हम अच्छी और प्रेरणादायक कहानियों के माध्यम से बच्चों को सही सिख प्रदान कर सकते हैं। पहले हम दादा-दादी, नाना-नानी से राजा-रानी, पशु-पक्षियों से लेकर परियों और जिन्न आदि की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए है। हम जब बचपन में कहानियाँ सुनकर उसमें खो जाया करते थे। हम एक अनोखी दुनियां में पहुँच जाया करते थे। जिसके बाद अंत में हर कहानी के कुछ न कुछ सीखने को मिलता था। आज हम आपके लिए तीन बेस्ट नैतिक कहानी (Moral stories in hindi for class 5) लेकर आये हैं. जिसको पढ़ने के बाद आपको काफी कुछ सिखने को मिलेगा।
Best 3 moral stories in hindi for class 5 | नैतिक कहानी
मज़ाकिया बनिया
एक गाँव में एक सीधा-सा ब्राह्मण रहता था, और उसी गाँव में एक मज़ाकिया बनिया रहता था। एक बार उस ब्राह्मण को खबर मिली की उसका भानजा बहुत बीमार हो गया है। ब्राह्मण घबरा गया और भानजा की खैर-खबर लेने के लिए अपनी बहन के घर गया। जब ब्राह्मण वहाँ पहुँचा तो उसने देखा भानजा तो बिल्कुल ठीक है।
बहन ने बताया-’’यह बहुत बीमार हो गया था। रोग इतना भयंकर था कि हम इसके बच जाने की आशा ही छोड़ बैठे थे। अब तो इसे बहुत आराम हैं।’’ ब्राह्मण भानजा को ठिक देखकर फिर बहुत खुश हुआ। ब्राह्मण उसके बाद नहा-धोकर, अपनह बहन के हाथों की बनी हुई बहुत हि स्वादिष्ट भोजन किया।
उसके बाद बहन-भानजे से बातें करने लगा, आपस में बातें करते हुए किसी को भी समय का अनुभव नहीं हुआ शाम हो गयी और शाम को ही बहुत अंधेरा हो गया, अंधेरा हो जाने के कारण ब्राह्मण को उस रात वही रूकना पड़ा थोड़ि देर बाद सब लोग सो गऐ।
दूसरे दिन ब्राह्मण अपने गाँव के लिए लौट पड़ा। जब गाँव के नजदीक पहुँचा तो रास्ते में उसे वहीं मज़ाकिया बनिया मिल गया।
बनिया ब्राह्मण से पूछने लगा- ’’चाचा! कहाँ गए थे तुम? अब कहाँ से आ रहे हो?’’ ब्राह्मण बोला-’’मेरा भानजा बिमार था, उसकी खैर-खबर लेने गया था। वहीं से चला आ रहा हुँ।’’ बनिए ने मुँह पर उदासी लाते हुए कहा-’’यहाँ तो अनहोनी हो गई, उसका पता आपको है या नहीं?’’
ब्राह्मण बोला- ’’नहीं, मुझे तो कुछ पता नहीं। मैं तो सबको ठीक-ठाक छोड़कर गया था। रात-ही रात में क्या अनहोनी हो गई तुम्हारी चाची तो ठीक है न?’’
’’चाचा! बहुत गलत हो गया हैं। मुझसे कहा भी नहीं जा रहा हैं। लेकिन कहना तो पड़ेगा ही। मेरी चाची विधवा हो गई है। गजब हो गया मेरे चाचा…… ’’ बनिए ने कहा। ब्राह्मण हक्का-बक्का हो गया। बोला- हें! तुम्हारी चाची विधवा हो गई?’’
क्या कह रहे हो तुम? कल तक तो वह भली-चंगी थी, अचानक ही विधवा कैसे हो गई?’’
यह सुन बनिए को हँसी आने को हुई, तो वह अपनी राह चला गया और ब्राह्मण अपने घर की ओर चला। ज्यों-ज्यों करके वह अपने घर के निकट पहुँचा तो हिचकी ले-लेकर जोर-जोर से रोने लगा। पड़ोस के सब लोग हैरान! सोचने लगे कि अचानक पंडित जी को क्या हो गया?
ब्राह्मण अपने घर के आँगन में बैठकर बुक्का मार-मार कर रोने लगा। ब्राह्मण का रोना सुनकर कमरे से उनकी लड़की निकल आई।
ब्राह्मण को इस प्रकार रोते देखकर घबरा गई। उसने पूछा क्या हुआ पिताजी-’’क्या हुआ बापू! आप इस तरह रो क्यों रहे हैं?’’
बापू एक मिनट को रूके और कुरते की बाँह से आँखों के आँसू पोछने लगे।
बेटी ने फिर पूछा-’’बापू! बुआ और उनका बेटा तो ठीक हैं न? उन्हें कुछ हो तो नहीं गया हैं?’’ ब्राह्मण बोला- ’’बेटी! बहन और भानजा तो ठीक हैं पर यहाँ जो अनहोनी हो गई है, उससे मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है, मैं बहुत दुखी हूँ।’’ ’’कौन सी अनहोनी? कैसा संकट?’’ बेटी ने पूछा।
ब्राह्मण बोला- ’’मुझे रास्ते में पड़ोसी बनिया मिला था। उसने बनाता- चाचा,चाची विधवा हो गई हैं। अब तू ही बता बेटी! तेरी माँ विधवा हो गई, अब मैं रोऊँ न तो क्या करूँ?’’ बेटी हैरान सी होकर कहने लगी- ’’लेकिन बापू! आपके जीवित रहते माँ कैसे विधवा हो सकती है।’’
पंडित जी कहने लगे- ’’अरे! यह तो मैं भूल ही गया था।’’
खरगोश की बु़िद्धमानी
एक घने जंगल में एक शेर रहता था। उसका नाम भासुरक था। भासुरक को भूख लगती तो वह जंगल में रहने वाले पशुओं को एक-एक कर मार रहा था। इस कारण जंगल के सब जानवर भयभीत रहते थे। एक दिन सभी जंगल के प्राणी एकत्रित हुए और आपस में इस समस्या का हल खोजने लगे। अनेक प्रकार के विचार कर वे सब भासुरक के पास गए। जब वे सब भासुरक के पास पहुँचे तो वह आराम कर रहा था। जंगल के सभी जानवरों को अपनी ओर आता देखकर भासुरक बोला-’’तुम सब इकट्टे होकर क्यों आए हो?‘‘
सभी जनवरों के प्रतिनिधि के रूप में एक जानवर ने कहा-’’महराज! आप एक ही दिन में अनेक जानवरों के मार डालते हैं। आपके भोजन से बचे हुए मृत पशु अपने किसी काम नहीं आते। इससे क्या लाभ? हम प्रतिदिन एक पशु अपके के लिए भेज दिया करेंगे। आपको आहान ढूँढ़ने का श्रम भी नहीं करना पड़ेगा। हम सब भी हर समय भयभीत नहीं रहेंगे।‘‘
शेर ने उनकी सब की बात मान ली। समझौते के अनुसार एक पशु प्रतिदिन भासुरक के पास भेजा जाने लगा। इस क्रम में एक दिन खरगोश की बार आई। वह जाना नहीं चाहता था, इसलिए बे-मन से वह धीरे-धीरे भासुरक के पास जा रहा था और मन-ही-मन वो सोच रहा था की काश शेर मर जाए तो प्राणियों का दुःख दूर हो जाए।
सोच-विचार करते हुए वह एक कुएँ पर पहुँच गया। वहाँ वह थोड़ी देर आराम करने के लिए कुएँ की जगह पर बैठ गया। बैठे-ही-बैठे उसने कुएँ के अंदर झाँका तो कुएँ के पानी में उसे अपनी परछाई दिखाई पड़ी। बस, उसकी समझ में एक उपाय बैठ गया। उसने सोचा कि किसी तरह भासुरक को इस कुएँ में गिरा दिया जाए। कुएँ में गिरकर वह मर जाएगा। और सभी प्राणी निर्भय हो जाएँगे।
मन-ही-मन खरगोश ने शेर को कुएँ में गिराने की तरकीब भी सोच ली। धीरे-धीरे चलता हुआ वह विलंब करके शाम के समय शेर के पास पहुँचा। भूख के मारे भासुरक के प्राण निकले जा रहे थे। उसे पशुओं पर क्रोध भी बहुत आ रहा था। पूरे दिन प्रतीक्षा करने के बाद जब उसने छोटे-से खरगोश को आया हुआ देखा तो उसके क्रोध की कोई सीमा न रही। दहाड़ मारकर वह बोला-’’अरे! डक तो तुम छोटे से जानवर, ऊपर से देर से आए हो। मैं जंगल के सब पशुओं को मार डालूँगा।‘‘
खरगोश ने अगले दोनों पैरों के पंजे जोड़कर विनयपूर्वक गिड़गिड़ाते हुए कहा-महराज! अपराध के लिए क्षमा करें! मैं ठीक समय पर ही आपकी सेवा में उपस्थित हो जाता लेकिन एक दूसरे शेर ने मुझे मार्ग में ही रोक लिया। वह मुझे खा जाना चाहता था परंतु बड़ी बुद्धिमानी से बहाना बनाकर आपके पास आ सका हूँ। देर से पहुँचने का यही कारण हैं। कृपया आप मेरा आहार करके अपनी भूख मिटाइए।
भासुरक आपे से बाहर हो गया। आक्रोशपूर्वक बोला-’’कहाँ है वह शेर! मेरे साथ चलकर उसे दिखा। उससे निबटकर ही मैं भोजन करूँगा।‘‘
खरगोश मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा था। वह भासुरक को साथ लेकर उस कुएँ पर पहुँच कर रूक गया। भासुरक बोला-कहाँ वह शेर!’’
खरगोश ने डरने का अभिनय करते हुए कहा-’’महाराज वह इस कुएँ में छिपा हुआ है।‘‘
भासुरक ने कुएँ की जगत पर चढ़कर कुएँ में झाँका तो कुएँ के पानी में उसे अपनी परछाई दिखाई दी। उस परछाई को ही उसने दूसरा शेर समझा और उसे मारने के लिए दहाड़ता हुआ कुएँ में कूद गया। वहाँ उसे दूसरा शेर तो मिला नहीं लेकिन उसकी जान संकट में फँस गई। कुआँ गहरा था, इसलिए अनेक प्रयत्न करने पर भी वह ऊपर नहीं आ सका। उसके प्राण निकल गए। खरगोश बहुत प्रसन्न था। उछलता-कूदता वह जंगल में लौट आया और यह समाचार सब पशुओं को सुना दिया। सुनते ही सभी प्रसन्नता से उछल पड़े।
सभी ने मुक्त कंठ से खरगोश की प्रशंसा की।
स्वावलंबन
बंगाल का एक छोटा-सा रेलवे स्टेशन था। दोपहर का समय था। स्टेशन पर एक गाड़ी आकर रूकी। एक युवक उस गाड़ी से नीचे उतरा।
युवक के पास एक संदूक था। वह वहां कुली को आवाज दे रहा था। बंगाल छोट-सा तो स्टेशन था। वहाँ कुली कहाँ था? कुली तो बड़े-बड़े स्टेशनों पर होते हैं। युवक का चेहरा मुरझा गया। करे तो क्या करे?
वह युवक सोच में पड़ा हुआ था कि उसी समय एक अधेड़ अवस्था का मनुष्य उसके सामने आकर खड़ा हो गया। मनुष्य ने सादे कपड़े पहन रखे थे। युवक ने उस मनुष्य को कुली समझा और उसे डाँटते हुए कहा-’’बड़े सुस्त हो तुम लोग! जल्दी से इस संदूक को उठा लो।‘‘
मनुष्य ने संदूक उठाकर सिर पर लिया और युवक के पीछे-पीछे चलने लगा। अपने घर पहुँचकर युवक ने जेब से पैसे निकालकर उस मनुष्य से कहा -‘‘संदूक यहीं उतारकर रख दो, यह अपनी मजदूरी लो।‘‘ यह कहकर पैसे उसकी ओर बढ़ा दिए। परंतु उस मनुष्य ने पैसे लेना स्वीकार नहीं किया। उत्तर में कहा-’’धन्यवाद! मुझे पैसे की आवश्यकता नहीं है।‘‘
युवक ने आश्चर्य के साथ कहा-’’क्या कह रहे हो तुम? यदि पैसों की आवश्यकता नहीं है तो कुलीगीरी क्यों करते हो?‘‘ मनूष्य कुछ कहे उससे पूर्व ही युवक का बड़ा भाई घर से निकला, उसने उस मनुष्य को देखकर श्रद्धा से चरण-स्पर्श किया। अब तो युवक के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसके बड़े भाई ने उसे आश्चर्य-चकित देखकर कहा-‘‘किस आश्चर्य में पड़ गए। युवक-बोला-’’आप एक साधारण व्यक्ति के पैर छू रहे हैं, इस पर आश्चर्य न करूँ तो क्या करूँ।‘‘
उसके भाई ने कहा-मुर्ख! जे व्यक्ति सिर पर तुम्हारा संदूक रखकर लाया है, वह साधरण व्यक्ति नही, प्रसिद्ध विद्वान ईश्वरचंद्र विद्यासागर हैं। युवक हक्का-बक्का रह गया। फिर विद्यासागर जी के पैरों पर गिरकर बोला -’’मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई। मैं बहुत लज्जित हूँ। कृपया मुझे क्षमा कर दीजिए।‘‘
विद्यासागर जी ने उसे क्षमा करते हुए कहा-’’अब मैं अपनी मजदूरी माँगता हूँ। वह मजदूरी मुझे इस प्रतिज्ञा के रूप में दो कि भविष्य में अपने काम के लिए किसी का मुँह न ताककर उसे अपने हाथों से करोगे।‘‘ उन्होंने आगे कहा- ’’मैं चाहता हूँ कि देश से सभी लोग व्यर्थ के अहंकार को छोड़कर अपने हाथों अपना काम करें।‘‘
युवक पानी-पानी हो गया।
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