हमारा देश भारत की Independence Day की 75वीं वर्षगाठ मानने वाला है। 75 साल पहले हमें आजादी उन देशभक्तों के कारण मिली जिन्होंने अपनी तमाम सुख-सुविधाएँ, अपना कैरियर, अपना परिवार, यहां तक कि अपनी जान भी देश के नाम कर दी। हमें आजादी दिलाने वाले लोग ऐसे लोग थे। जिनके अंदर देश भक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्हें देश के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता था। आईए हम उन वीर महापुरूषों के बारे में आपको Independence Day 2023 के अवसर पर संक्षेप में बताते हैं।
Independence Day 2023- स्वतंत्रता संग्राम के 7 महानायक
देश को स्वतंत्रता दिलाने में अनगिनत लोग शहीद हुए और जेल गए मगर हम आपके लिए स्वतंत्रता संग्राम के 7 महानायक की कहानी लेकर आये हैं। आइए इनको पढ़ते हैं और अपने बच्चों को इनके बारे में बताते हैं ताकि वो भी इनकी तरह देश के प्रति समर्पित हो सकें।
शहीद भगत सिंह की कहानी
दुनिया भर में जब भी अपने देश के लिए जान कुर्बान करने वाले नौजवानों की बात आती है तो सबसे पहला नाम शहीद भगत सिंह का लिया जाता है। केवल 23 वर्ष के उम्र में, जिस समय हमारे देश के बच्चे काॅलेज की पढ़ाई पूरी कर रहे होते हैं। उस उम्र में उन्होंने अपने विचारों और अपनी देश भक्ति के दम से अंग्रेज सरकार की जड़े हिलाकर रख दी थी।
भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में नौजवान शहीद भगत सिंह के जीवन से प्रेरणा लेते है और उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। भगत सिंह के अंदर देश भक्ति का भाव बचपन से ही था।
एक बार की बात है। भगत सिंह के चाचा घर में एक बंदूक लेकर आए। उन्होंने अपने चाचा से पूछा कि इससे क्या होता हैं?
भगत सिंह के चाचा ने उनसे कहा कि वे इससे अंग्रेजी हुकूमत को इससे लड़ के अपने देश से भगा देगें। कुछ दिनों बाद जब भगत सिंह के चाचा जब खेत में काम करने गए तो भगत सिंह भी उनके साथ खेत में गए। चाचा खेत के चारों ओर आम के पेड़ लगा रहे थे।
भगत सिंह ने चाचा जी से पूछा आप ये क्या कर रहे हो- चाचा ने बोला में आम का पेड़ लगा रहा हूं। जो सालों बाद एक बड़ा पेड़ का रूप ले लेगा जिसकी छाया में हम और राहगीर आराम से बैठ सकते है और गर्मी के मौसम में मिठे-मिठे फल भी खाने को मिलेगा।
भगत सिंह ने कुछ सुखें और नुकीली लकड़ियां अपने हाथ में उठाई और उसे मिट्टी के अंदर लगााने लगें। यह देखकर चाचा ने पूछा अब तुम क्या कर रहें हो? भगत सिंह ने चाचा को उत्तर दिया मैं बंदूकें बो रहा हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि हमारा देश गुलाम है और उनसे लड़ने के लिए हमें बहुत सारी बंदूकों की जरूर है। इसलिए में बंदूकें बो रहा हूं। जब बहुत सारी बंदूकें होगीं तो हम अंगे्रजों से लड़ कर उन्हें अपने देश से भगा देगें।
उस दिन भगत सिंह के चाचा जी ने सोचा बचपन में इसके विचार ऐसे क्रांतिकारी है तो हमें इसके पालन-पोषण में और इसकी गतिविधियों पर विशेष नजर रखनी होगी, ताकि इसके अंदर की ये प्रतिभा निखरकर आए। बाद में ऐसा ही हुआ भगत सिंह ने आजादी दिलाने के लिए ऐसा काम किया जिससे दुनिया उन्हें जानती ही नहीं पूजती भी हैं।
चंद्रशेखर आजाद का जीवन परिचय हिंदी में
आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारी के साथ एक प्रदर्शन में शामिल होन पर पुलिस ने 14 साल के एक बच्चे को गिरफ्तार कर लिया औा उसे जज के सामने पेश किया गया।
जहां जज के सामने पेश होन के बाद उनका नाम पूछा तो पूरी दृढ़ता से उस बच्चे ने जवाब दिया, मेरा नाम आजाद हैं। पिता का नाम पूछने पर जोर से बोला, स्वतंत्रता और पता पूछने पर जोर से बोला जेल।
इससे जज नाराज हो गया और बच्चे को सरेआम 15 कोड़े लगाने की सजा सुनाई। जब उस बच्चे के पीठ पर कोड़े लगने लगे तो उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी।
वह तो बस एक ही गीत गाए जा रहे था। वन्दे मातरत। यह बच्चा कोई और नहीं बल्कि चंद्रशेखर आजाद थे। जब वह धीरे-धीरे बड़े होने लगें तो अंगे्रजी पुलिस उनके नाम से काँपने लगी थी।
चंद्रशेखर शेखर आजाद ने 1928 में लाहौर में ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर साॅन्डर्स को गोली मारकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था। उन्होंने सरकारी खजाने को लूटकर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना शुरू कर दिया था। उनका मानाना था जो अंग्रेजों के पास धन है वह हम भारतीयों का ही हैं। जिसे इन अंगेजों ने हमसे लूटा है मैं तो उनसे वापस ले रहा हूं।
रामप्रसाद बिस्मिल ने नेतृत्व में आजाद ने काकोरी कांड (1925) में सक्रिय भाग लिया था।
चंद्रशेखर आजाद कहते थे कि गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेगें। उनके इस नारे को हर क्रांतिकारी युवा रोज दोहराता था। वे जिस शान से मंच से बोलते थे, हजारों युवा उसने साथ देश के लिए जान लुटाने को तैयार हो जाते थे।
7 फरवरी, 1931 के दिन चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने एक साथी के साथ बैठकर देश के आजादी के लिए विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी वहां अंग्रेजों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। चंद्रशेखर आजाद ने अपने दोस्त को तो भगा दिया पर खुद अंग्रेजों से अकेले ही सामना करते रहे। अतं में अंग्रेजों की गोली उनकी जाँघ में लग गई।
आजाद की बंदूक में एक गोली ही बची थी। चंद्रशेखर आजाद ने पहले ही यह प्रण किया था। कि वह कभी भी जिंदा पुलिस के हाथ नहीं आएंगें। इसी प्रण को निभाते हुए उन्होंने वह बची हुई गोली खुद को मार ली।
पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद का इतना भय था कि किसी में भी उनके मृत शरीर के पास जाने तक ही हिम्मत नहीं हुई। उनके शरीर पर गोली चलाकर और पूरी तरह तसल्ली होने के बाद पुलिस चंद्रशेखर आजाद के पास गई।
राम प्रसाद बिस्मिल कहानी
जब भी देशभक्ति की बात होती है तो आज भी दो सबसे महत्वपूर्ण गाने आंदोलनकारियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बनते है। पहला- मेरा रंग दे बसंती चोला और दूसरा- देशहित पैदा हुए है देश पर मर जाएँगे।
आज भी जब युवा इन गानों की आवाज सुनती है तो उसके अंदर देशभक्ति की भावनाएँ उफान मारने लगती है। ये दोनों गीत क्रांतिकारी वीर सपूत और आजादी के आंदोलनकारियों के सबसे लोकप्रिय कवि राम प्रसाद बिस्मिल ने लिखी थी।
जब-जब भारत के स्वाधीनता इतिहास में महान क्रांतिकारियों की बात होगी तब-तब भारम मां के इस वीर का जिक्र होगा। राम प्रसाद बिस्मिल शायर, कवि, अनुवादक, बहुभाषाविद् व साहित्कार भी थे।
इन्होंने अपनी बहादूरी और सूझ-बूझ से मैनपुरी कांड और काकोरी कांड को अंजाम देकर अंगे्रजी हुकुमत को हिला कर रख दिया था। लगभग 11 वर्ष के क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित भी किया। उनके जीवनकाल में प्रकाशित हुई सभी पुस्तकों को ब्रिटिस सरकार ने जब्त कर लिया था।
पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए बिस्मल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई। उनके नेतृत्व में 10 लोगों जिनमें अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, चंद्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी शर्मा और बनवारी लाल आदि शामिल थे। लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन पर ट्रेन रोककर 9 अगस्त 1925 को सरकारी खजाना लूट लिया।
26 सितम्बर 1925 को बिस्मिल के साथ पूरे देश में 40 से भी अधिक लोगों को काकोरी डकैती मामले में ब्रिटिस सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद सभी को फाँसी की सजा सुनाई गई। भारत की आजादी के लिए केवल 30 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी।
जिस दिन उन्हें फाँसी दी जाने वाली थी। उस दिन बिस्मिल सुबह कसरत कर रहे थे। उन्हें कसरत करता देख जेलर ने आश्रर्य से पूछा- तुम्हें आज कुछ घण्टे में फाँसी होने वाली है। कसरत क्यों कर रहे हो?
बिस्मिल ने जवाब दिया- भारत माता के चरणों में अर्पित होने वाले वाले फूल हैं। उन्हें मुरझाया नहीं होना चाहिए, बल्कि स्वस्थ्य व सुंदर दिखना चाहिए।
शहीद सुखदेव का जीवन परिचय
बचपन से देश की आजादी का सपना पाले एक वीर सपूत केवल 24 साल के उम्र में हंसते-हंसते फाँसी के फंदे पर झूल गया। अमर शहीद सुखदेव ने सभी मोह का त्याग करते हुए देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी।
सुखदेव के मन में बचपन से ही ब्रिटिस हुकूमत के जुल्मों के खिलाफ क्रांतिकारी विचार उठने लगे थे। उनके दिमाग में बस एक ही विचार चलता देश को अंग्रेजों से मुक्त करवाना। 1919 में जब जलियाँवाला बाग में अंधाधुध गोलियाँ चलाकर अंग्रेजों ने भीषण नरसंहार किया था। तब सुखदेव की उम्र केवल 12 साल थी। इस घटना के बाद अंगे्रजों ने सभी प्रमुख इलाकों में मार्शल लाँ लगा दिया गया था।
उस दौरान स्कूल, काॅलेज विधार्थियों को अंगे्रज पुलिस अधिकारियों को सैल्यूट करने के लिए बाध्य किया जाता था। सुखदेव ने पुलिस अधिकारियों को सैल्यूट करने से मना कर दिया, जिसके बाद अंग्रेज पुलिस अधिकारियों से बेंत से मार भी खानी पड़ी।
भारत में जब साइमन कमीशन लाया गया तो उसका भी सुखदेव ने जमकर विरोध किया था। वह लाहौर नेशनल काॅलेज में पढ़ने के दौरान सुखदेव की मुलाकात भगत सिंह और राजगुरू से हुई। उसके बाद वे सभी अच्छे मित्र बन गए। और अपनी क्रांतिकारी सूझ-बूझ को एक दूसरे के साथ बांटने लगें।
सुखदेव महान सवतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय से बुहत प्रभावित थे। पंजाब में लाठी चार्ज के दौरान लाला लाजपत राय के निधन की खबर से सुखदेव को बहुत आहात हुआ जिसके बाद उनहोंने अपने मित्र भगतसिंह और राजगुरू के साथ मिलकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने की ठानी।
उन्होंने योजना बनाकर 1928 में अंगे्रजी हुकूमत के एक पुलिस अधिकारी सांडर्स को मौत के घाट उतार दिया। इस घटना ने ब्रिटिश पुलिस के होश उड़ा दिया।
अंग्रेजों के लाए गए दमनकारी कानूनी के विरोध की योजना भी सुखदेव ने बनवाई। इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए 8 अप्रैल 1929 को सुखदेव ने अपने साथी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर दिल्ली सेंटर असेंबली में अंगे्रजों के दमनकारी कानून के खिलाफ पचें बाँटे और बम फेंका। इसका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं बल्कि अंगे्रजों के कुशासन के खिलाफ आजादी का बिगुल बजाना था।
वे इंकलाब के नारे लगाते रहे पर वहाँ से भागे नहीं। सुखदेव को अपने साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई। 23 मार्च 1931 को भारत के इस वीर ने अपने साथी भगत सिंह और राजगुरू के साथ हँसते- हँसते फाँसी के फंदे को गले लगा लिया।
शहीद राजगुरु की जीवनी
बचपन से ही राजगुरू के अंदर जंग-ए-आजादी में शामिल होने की ललक थी। वाराणसी में पढ़ाई के दौरान राजगुरू का संपर्क अनेक क्रांतिकारियों से हुआ।
वे चंद्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनके क्रांतिकारी दल हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी से जुड़ गए। उस वक्त उनकी उम्र केवल 16 साल थी। राजगुरू का मकसद ब्रिटिश अधिकारियों के मन में खौफ पैदा करना।
देश की आजादी के लिए घूम-घूम कर लोगों को क्रांतिकारी विचार के बारे में लोगों को जागरूक किया। लाला लाजपत राय को साइमन कमीशनर का विरोध करते वक्त हुई थी। मौत हो गई। जिससे भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर राजगुरू ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने की ठानी।
राजगुरू का खौफ ब्रिटिश सरकार पर इस तरह से हावी हो गया था। कि उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस को विशेष अभियान चलाना पड़ा। लाला लाजपत राय के मौत का बदला लेने के बाद कुछ समय के लिए राजगुरू नागपुर में रहें। दिल्ली में असेम्बली में बम फेंककर बहरी अंग्रेज सरकार के कानों को खोलने का काम भी किया। वहीं से उन्हें सुखदेव और भगत सिंह के साथ पुलिस ने गिरफ्तार कर उन्हें केवल 22 साल की उम्र में उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई।
मौत की सजा मिलने के बाद सुखदेव बाकी कैदियों के साथ हँसते बोलते रहते। एक बार एक कैदी ने सुखदेव से पूछा तुम्हें फाँसी की सजा हुई है। परन्तु तुम इतना खुश कैसे रहते हो। तुम्हें मौत से डर नही लगता। सुखदेव ने जवाब दिया- मैंने जो किया मुझे उसपर गर्व है और मुझें पता है हमारी मौत सार्थक होगी आने वाले क्रांतिकारियों के लिए पथ प्रदर्शन बनेगी।
बटुकेश्वर दत्त की जीवनी
बटुकेश्वर दत्त के अंदर राष्ट्र और संस्कृति के लिए बहुत प्रेम था। वह जब 14 वर्ष के थे तभी से क्रांतिकारियों के बीच संदेश और परचे बांटने का कामते थे। स्वतंत्रता संग्राम में एक घटना घटी थी दिल्ली की नेशनल असेम्बली में भगत सिंह का बम फेंकना। बम फेंकते वक्त भगत सिंह ने कहा था, अगर बहरों को सुनाना हो तो आवाज जोरदार करनी चाहिए।
इस घटना को अंजाम देते वक्त वह भी सुखदेव और भगत सिंह के साथ असेम्बली में मौजूद थे और इन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया था। सुखदेव और भगत सिंह पर कई केस थे इसलिए उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई।
बटुकेश्वर दत्त को उम्र केद की सजा सुना दी। और कुछ दिनों के बाद इन्हें अंडमान-निकोबार की जेल में भेज दिया गया। जिसे काला पानी की सजा भी कहते है।
कालापानी की सजा के दौरान बटुकेश्वर दत्त पर बहुत अत्याचार किया गया। वे जेल में मरते-मरते बचे। जेल में जब उन्हें पता चला कि उनके साथी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सजा सुनाई गई है तो वे काफी निराश हुए। उन्हें दुख इस बात का नहीं था कि उनके तीनों साथी अपनी आखिरी साँसें गिन रहे हैं, बल्कि इस बात की थी कि उन्हें फाँसी की सजा उनके साथ क्यों नहीं हुई।
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